October 31st 2022

इस मक़ाम पर ।

क्या कुछ नहीं किया ज़िन्दगी ने इस मक़ाम पर,
पहुँचे तो पहुँचे भी कुछ देर से इस मक़ाम पर।

मुमकिन से नामुमकिनको बदलना भी चाहा था,
सोच भी थी, यहीं कभी, आयेंगे इस मक़ाम पर।

जीना यहाँ, मरना यहाँ, सुना जब दिल से दिल लगा,
ये भी सुनेंगे, जी ते जी मरते रहें इस मक़ाम पर।

सागर नहीं, सुराही नहीं, साक़ी नहीं तो क्या-
फिर भी नशे में लड़खड़ाते रहे इस मक़ाम पर।

सभी ने कहा, ना दिल मानता, ना हम भी मानते,
भूल गए सच-जूठ की सब परखें इस मक़ाम पर॥

यारों कभी, ऐसा भी कुछ होता रहा ज़िंदगी में –
ख़ुद को सुना, ग़ैर की आवाज़ में इस मक़ाम पर।

ये वादियाँ थी, चाहतोमें बस रहे चित्कारकी-
शिकवे कभी, रुसवे कभी, सिसके इस मक़ाम पर॥

ना इलाज है, ना उपाय है, ये कहाँ पे आ गए है हम,
बिखरे हुए, सांसों के सपने उजड़े इस मक़ाम पर ॥

क्या खो दिया, क्या पा लिया ये समझ आ जाती-
लेकिन ‘मनुज’ फिरते रहे उलझे से इस मक़ाम पर ॥

‘मनुज’ ह्युस्तोनवी
१०/३१/२०२२

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