परवरदिगार!
अपनी किस्मत से मांगा जो पाया नहीं।
हाथ हजारों है पर कुछ दे पाया नहीं।
पहले तू मुझमें ही बीलकुल रेहता था,
अब मेरी तू छडी नहीं, हम साया नहीं ।
धागों से बांधे फूलों के ठिक पीछे से,
तुझको साफ नज़र कुछ भी आता नहीं।
सजदे ऐसे उठानेकी आदत क्या हूई,
बनके पत्थर बैठा तू ऊठ पाता नहीं।
गलती किसकी है, माफी मिलेगी नहीं,
मैं तेरे दर पे, तू मेरे दर आया नहीं।
कुछ सुना था कभी कोई कथाओं में,
तू ऐसा कि तेरा कहीं कोई साया नहीं।
मन्नतें मांग कर, फूल हाथों में लिये,
राह देखी बहुत पर तू आया नहीं।
डोली कांधों पे थी, पर मना कर दीया,
फिर ना केहना तुम्हें कोई लाया नहीं।
तोडे इतने है दील तुने, मेरे खुदा-
शहर में कोई खाली मयखाना नहीं।
साथ आये है, साथ ही है, फिर भी क्युं?
अपनों की मेह्फिल में अपना सा नही।
तेरी नज़र ने हम को ऐसे बांधा है ,
अब मै अपनी नज़र से देख पाता नहीं
धागों ताविजों के उलझे ये चक्कर में,
बंधा क्या ‘मनुज’ बस खुल पाता नहीं।
क्या ‘मनुज’ ये सीला खत्म होगा कभी?
जाम खाली कोई अब छलकाता नहीं।
‘मनुज’ ह्युस्तोनवी
०४/१७/२०१७